Monday, August 4, 2008

क्या इन्हें शर्म नहीं आती

अक्सर दिल्ली से बाहर जाने वाली ट्रेन में पुलिस वाले सामान ले जानेवाले गरीब लोगों को डंडे के बल पर धमकाते हुए मिल जायेंगे। अरे ये सामान कहाँ ले जा रहा है ये तो बहुत भारी है, इसे बुक करा ले नहीं तो पेनाल्टी लगा दूंगा। वो मजदूर टाइप का आदमी उसकी चिरौरी करता रहेगा बाबूजी बहुत सामान कहाँ है , थोड़ा ही तो है। पुलिसवाला
उसके बाद मोल भाव पर उतारू हो जाता है और पाँच या दस रूपये लेकर चलता बनता है। ये कहानी किसी एक प्रदेश या ट्रेन की नहीं है हर ज़गह एक ही हालत है।
छुट्टियों के मौके पर घर जाने वाले ये लोग अपनी कमी के बचे खुचे हिस्से से अपने समबंधियों के लिए कुछ न कुछ जोड़ कर ले जाते हैं। अगर इनका भारी भरकम सामानदेखा जाए तो आपको लालकिले से खरीदी गयी चप्पलें, कुछ पुराने कपड़े, एक लोकल मेड पंखा , एक घड़ी , कुछ खिलौने और साड़ी जैसी चीज़ें मिल जाएँगी। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि एक पुलिसवाले की मेहरबानी से मैं इनके सामान को देख पाने में सफल रहा।
इन सामान के साथ कितने अरमान जुड़े हैं ये उन पुलिस वालों को कौन समझाए। छः महीने या साल भर बाद घर पहुँच कर परिवारवालों के चेहरे पर जो खुशी देखने को मिलती है उसे उनके अलावा कौन समझ सकता है। काश कोई पुलिसवाला घर से छः महीने दूर रहकर एक बार सिर्फ़ एक बार इसे अनुभव कर देखता।
मुनिया को खिलौने, चाची को साड़ी, पत्नी को एक चप्पल और छोटे भाई को पुराणी शर्ट देने के बाद वह आदमी ख़ुद को अम्बानी या मित्तल से कम नहीं समझता। क्योंकि इन सामान को घर तक पहुँचने में जो मुश्किलें आती हैं वह मित्तल को आर्सेलर के अधिग्रहण में भी नहीं आयी होगी। इसमें सफल होने के बाद वह आदमी जब अपने रिश्तेदारों के चेहरे पर खुशी देखता है तो उसकी सारी पीड़ा दूर हो जाती है, जो उसने मेट्रो शहर में रहने के दौरान उठाई होती है। काश कोई इस भावना को समझ पाता।

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