Friday, August 8, 2008

सिर्फ़ चेहरे नहीं फितरत भी बदलनी चाहिए

कई बार एसा लगता है कि राजनीति में जब नए लोग आयें तो सुधर की गुंजाईश बनेगी, पर कुछ दिनों के इन्तेज़ार के बाद हालत पुराने जैसी ही हो जाती है। संसद में नए चेहरे से काफी उम्मीदें थीं पर नए लड़कों को न तो संसद की कार्यवाही में रूचि है न ही वे लगातार संसद पहुँचते हैं। अब राहुल, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, अखिलेश यादव और सिंधिया की बात करें तो ना तो ये रेगुलर पहुँचते हैं ना ही वहां किसी चर्चा में हिस्सा लेते हैं। लगता है कि संसद पहुंचना उनका एक मकसद था विरासत को सँभालने का वह पूरा हो गया बस। बहस में भाग लेंगे तो अपने विचार भी छलक सकते हैं जो partyline से बाहर भी जा सकते हैं और यह उचित नहीं होगा। साढे चार साल पहले जब वे चुनकर संसद पहुंचे तो देश के युवाओं में बड़ी उत्साह थी चलो हमारा भी कोई numainda संसद तक पहुँचा, पर अब पता लगा कि सिर्फ़ एक बड़े बाप का बेटा संसद पहुँचा है जो सिर्फ़ खानदानी परम्परा का निर्वाह करने वहां गया है। काश कुछ पढ़े लिखे आम नए लड़के उनकी ज़गह होते जो अपने बाप की बदौलत वहां नहीं पहुँचते तो कुछ अच्छा होने की उम्मीद की जा सकती थी। पर अफ़सोस सारे निकम्मे ही संसद पहुंचे हैं। सिर्फ़ आईआइटी या किसी अच्छे संसथान से अपने दम पर पढ़े लिखे लड़कों से ही अब उम्मीद कायम है वरना बड़े बाप के बेटे तो सांसद बनने के बाद बात करना भी पसंद नहीं करते। बाप से एक कदम आगे चल रहे हैं उनके सुपुत्र।

बहुत गड़बड़झाला है भाई

आजकल खुल रहे नए निजी बैंकों में सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी और साथ में एक बन्दूक का लाइसेंस बहुत आसानी से प्राप्त होने वाला मध्यम बन गया है। बेगुसराई में कई निजी बैंक जैसे एक्सिस बैंक वगैरह खुले हैं और उनमें बन्दूक का लाइसेंस रखने वाले गार्ड की भारी मांग है। आस पास के इलाके में बन्दूक का लाइसेंस बनवाने और बनने वाले भी दर्ज़न नहीं सैकडों की संख्या में उग आए हैं। बेरोजगार लड़के २५००० रूपये में आसानी से लाइसेंस और बन्दूक हासिल कर लेते हैं और साथ में ८००० रूपये महीने की नौकरी भी। ये लाइसेंस वास्तव में नागालैंड, अरुणाचल या त्रिपुरा सरकार के नाम से स्थानीय स्तरपर बनाये जा रहे हैं।
कहने का मतलब यह है की फर्जी लाइसेंस के भरोसे बैंक के खजाने की सुरक्षा की जा रही है। एसा भी नहीं है की प्रसाशन या पुलिस को इस बारे में पता नहीं हो, क्योंकि एसा बड़े पैमाने पर हो रहा है। अगर पुलिस को पता नहीं है तो यह और भी गंभीर है क्योंकि कम से कम बैंक पर उनकी नज़र तो रहनी ही चाहिए। इसके अलावा पुलिस की मिलीभगत की इसमें अधिक गुंजाइश है क्योंकि उनको यह तो पता होना ही चाहिए कि अचानक पूर्वोत्तर राज्यों से लाइसेंस बहुतायत में कैसे बन्ने लगे। अगर ये पुलिस कि मिलीभगत से हो रहा है तो नीतीशजी के सुशासन के दावे हवा में उड़ गए क्या। कोई बिहार सरकार को सदबुधि दे कि वह इन घटनाओं पर लगाम लगाये वरना उसके दावे तो उडेंगे ही सरकार भी लालूजी कि तरह...।

Tuesday, August 5, 2008

सिर्फ़ लूट ही नहीं है भाई

यह ठीक है कि कई लोगों को लगता है कि कई लोगों को लगता है कि नीतिश सरकार जानबूझ कर ऐसे काम कर रही है जिससे लूट की दुकान चलती रहे, पर इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता। हो सकता है ऐसा हो या नहीं हो, पर लोगों में जो रुझान है उससे लगता है कि वे अब काम करना चाहते हैं और मेहनत करके कमाने में लगे हैं।
लूट लालू के समय में भी थी, मिश्राजी के समय में भी और श्रीबाबू के समय भी थी, उसकी प्रकृति बदली, चेरे बदल गए और बदल गए लूटनेवाले। संतोष कि बात है कि लोगों में जागरूकता आयी है। मेरे लिए राहत की बात यही है।

Monday, August 4, 2008

बदल रहा है हमारा बिहार

क्या आपको पता है? दिन भर खाली बैठकर गप्पें मारने या ताश पत्ती खेलते रहने का ज़माना अब गया। अब सिर्फ़ पढ़ाई के लिए मशहूर बिहार में नए काम की बाढ़ सी आ गयी है। ट्रेन में कटिहार जाते हुए एक दोस्त मिला। उसने जब अपनी कहानी सुनायी तो मैं हैरत में पड़ गया। एक साल पहले भाई ने लोन पर एक जेसीबी ख़रीदा। हर ज़गह काम चल रहा है सो भाई ज़म कर काम करने में लग गया। आश्चर्य की बात है लेकिन सौ फीसदी सही कि भाई ने साल भर में बुलडोज़र का लोन चुकाया और एक नया जेसीबी खरीद भी लिया। मुझे आश्चर्य तो हुआ लेकिन उसकी बात पर भरोसा भी क्योंकि उसके पापा ने इस बात कि पुष्टि की।
बेगुसराई में मेरा एक और दोस्त है जो कॉम्पिटिशन की तैयारी कर रहा था, पर संयोग से उसका जॉब कहीं हो नहीं पाया। अब वह बेएएसेनेल से कनेक्शन लेकर नेट और लेनोवो के लैपटॉप से शेयर ट्रेडिंग करता है। मेरे सामने उसने ८०० रूपये बना लिए। मुझे देखकर आश्चर्य तो हुआ पर काफी खुशी भी हुई। लगा कि चलो अब लोग फालतू कि बातें छोड़कर कम कर रहे हैं और मारपिटाई छोड़कर अपनी जिन्दगी सवांरने में लगे हैं।
एक बार नीतिश कुमार को धन्यवाद्। जिन्होंने एक भटके हुए सभ्य समाज को बदलने की कोशिश की और लोगों को उद्यमी बनने में मदद की।
बदल रहा है भाई मेरा बिहार, अब वहां भी लोग काम करने में अपनी शान समझने लगे हैं।

क्या इन्हें शर्म नहीं आती

अक्सर दिल्ली से बाहर जाने वाली ट्रेन में पुलिस वाले सामान ले जानेवाले गरीब लोगों को डंडे के बल पर धमकाते हुए मिल जायेंगे। अरे ये सामान कहाँ ले जा रहा है ये तो बहुत भारी है, इसे बुक करा ले नहीं तो पेनाल्टी लगा दूंगा। वो मजदूर टाइप का आदमी उसकी चिरौरी करता रहेगा बाबूजी बहुत सामान कहाँ है , थोड़ा ही तो है। पुलिसवाला
उसके बाद मोल भाव पर उतारू हो जाता है और पाँच या दस रूपये लेकर चलता बनता है। ये कहानी किसी एक प्रदेश या ट्रेन की नहीं है हर ज़गह एक ही हालत है।
छुट्टियों के मौके पर घर जाने वाले ये लोग अपनी कमी के बचे खुचे हिस्से से अपने समबंधियों के लिए कुछ न कुछ जोड़ कर ले जाते हैं। अगर इनका भारी भरकम सामानदेखा जाए तो आपको लालकिले से खरीदी गयी चप्पलें, कुछ पुराने कपड़े, एक लोकल मेड पंखा , एक घड़ी , कुछ खिलौने और साड़ी जैसी चीज़ें मिल जाएँगी। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि एक पुलिसवाले की मेहरबानी से मैं इनके सामान को देख पाने में सफल रहा।
इन सामान के साथ कितने अरमान जुड़े हैं ये उन पुलिस वालों को कौन समझाए। छः महीने या साल भर बाद घर पहुँच कर परिवारवालों के चेहरे पर जो खुशी देखने को मिलती है उसे उनके अलावा कौन समझ सकता है। काश कोई पुलिसवाला घर से छः महीने दूर रहकर एक बार सिर्फ़ एक बार इसे अनुभव कर देखता।
मुनिया को खिलौने, चाची को साड़ी, पत्नी को एक चप्पल और छोटे भाई को पुराणी शर्ट देने के बाद वह आदमी ख़ुद को अम्बानी या मित्तल से कम नहीं समझता। क्योंकि इन सामान को घर तक पहुँचने में जो मुश्किलें आती हैं वह मित्तल को आर्सेलर के अधिग्रहण में भी नहीं आयी होगी। इसमें सफल होने के बाद वह आदमी जब अपने रिश्तेदारों के चेहरे पर खुशी देखता है तो उसकी सारी पीड़ा दूर हो जाती है, जो उसने मेट्रो शहर में रहने के दौरान उठाई होती है। काश कोई इस भावना को समझ पाता।

Sunday, August 3, 2008

सपने पुरे हो रहे hain

अभी बेगुसराई से लौटा हूँ। ट्रेन में जाते हुए एक बंगालन से मुलाकात हुई जिसकी शादी हरियाने में हुई। अपनी शादी से वह महिला इतनी खुश थी कि उसे बंगालियों के खान पान, रहन सहन से नफरत होने लगी थी। उसे लगता था की मछली भी भला खाने की चीज़ है। उसे आश्चर्य होता था कि कैसे वह सालों उस माहौल में रही। अब उसे रोटी दाल, दही दूध और मट्ठा ही इंसानों के खाने की चीज़ लगती थी।
अभाव के मारे लोगों को जब थोडी सी खुशी मिलती है तो उन्हें न सिर्फ़ अपने समबन्धी और अपनी परम्परा ख़राब नज़र आने लगे बल्कि अपेक्षाकृत मोटी चाल समझे जाने वाला हरियाणा अच्छा लगने लगा। उसकी शादी खरीदकर की गयी और वह ख़ुद ६०००० रूपये में लाई गयी थी। जब उससे यह पूछा गया कि खरीदकर शादी करना कब से अच्छी बात हो गयी तो उसने इस बात को भी सही ठहरा दिया कि अगर लड़कियों की कमी है तो खरीदकर शादी करने में क्या बुराई है।